गांव की शान कच्ची भोज





#भात_का_भोज...     आमतौर पर जिन लोगों का कनेक्शन गांव से रहा होगा इस चीज को बखूबी समझते होंगे कि भात का रिश्ता क्या होता है गांव में किसी भी समारोह में दो तरह का भोज होता था पक्की और एक कच्ची पक्की भोज का मतलब होता था पूरी पुलाव बुंदिया दही और कच्ची भोज का मतलब होता है भात। भात वाला रिश्ता गांव में भी हर किसी का हर किसी से नहीं होता था जो काफी करीबी होते थे उन्हीं लोगों से भात का रिश्ता होता था। 





आमतौर का भात का रिश्ता जात में ही होता था कई बार समारोह समाप्ति के अंतिम दिन माता का भोज दिया जाता था इसके पीछे एक लंबी कहानी है जब गांव में मोटे अनाज लोगों के खाने के मुख्य साधन थे मोटे अनाज में ज्वार बाजरा और मक्का। खासकर उत्तर बिहार में धान गेहूं की जगह मक्का और चना की फसल ही ज्यादा होती थी।हरित क्रांति के बाद देश में गेहूं की उपज भी व्यापक पैमाने पर होने लगी बिहार में शाहाबाद के इलाके को छोड़ दें तो अन्य जिलों में धान तब भी नदारद थी।ऐसे में शादी समारोह हो या किसी विशेष अवसर पर ही भात खाने को मिलता था वहीं से भात के रिश्ते की शुरुआत हुई जितना कुछ बचपन में गांव को देखने सोचने समझने का मौका मिला इस बात पर जमकर रिसर्च हुआ सुदूर गांव के लोगों से भी भारत का रिश्ता रहा दो पहर रात गुजरने के बाद गांव का हज्जाम लोगों को बुलाने आता था लोग अपने घर से लोटा गिलास लेकर जाते थे




 दो गांव के बीच की दूरी होती थी एक आदमी आगे आगे लालटेन और लाठी लेकर चलता था पीछे सभी लोग रेल के डिब्बे की तरह उसका अनुसरण करते थे भोज स्थल पर जाने के बाद गजब का उत्साह होता था पत्तों वाला पत्तल सोंधी मिट्टी वाला चुक्कर का पानी छिलके वाली दाल भात घी की खुशबू कई तरह की सब्जियां दही। और सबसे बड़ी बात खाने और खिलाने वालों की श्रद्धा। गांव में हर किसी की हैसियत इस बात से नापी जाती थी कितने ज्यादा से ज्यादा लोगों से उनका भात का रिश्ता है। बचपन में अक्सर एक चीज को नहीं समझ पाता था कि गांव से कई किलोमीटर दूर के गांव के लोगों के यहां हम भात खाने क्यों जाते हैं। गांव में यह भात जिस बर्तन में बनता था उसे हमारे जिले छपरा में हंडा बोलते थे जो पीतल का होता था लकड़ी की आंच पर इसी में दाल चावल और सब्जियां तैयार होती थी। जिसके यहां भात का भोज होता था उसके यहां दोपहर से ही चहल-पहल होती थी गांव के लोग ही मिलजुलकर यहां भात बनाते थे। दौड़ गरीबी का था घर का एक सदस्य कमाता था और आधा दर्जन सदस्य उसी की कमाई पर खेती कर परिवार पालते थे पर लोगों में भोज भात खिलाने का श्रद्धा था जमाना बदला वक्त बदला पैसा भी सबके पास आ गया पर ना भात की परंपरा रही ना लोगों के अंदर श्रद्धा। अब कहीं यह परंपरा बची भी है





 तो गांव के लोग ही गांव में ही भात खाने नहीं जाना चाहते दूर गांव से भात का रिश्ता टूट गया वह पेट्रोमैक्स की रोशनी में लंबी पात में जमीन पर बैठकर खाने का आनंद अब सिर्फ जेहन भर में रह गया है।पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग , थी तो बस सामाजिकता।गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी,हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं।औरते ही मिलकर दुलहन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा डालती थी।शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था।गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती।सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।




विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी १० रूपये की नोट जो कहीं २० रूपये तक होती थी....वो स्वार्गिक अनुभूति होती कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण माता जी द्वारा आठ आने से बदल दिया जाता था...आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है।जो आने वाली पीढ़ियों को कथा कहानियों में पढ़ने सुनने को ही मिल पाएगा।
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